कृषक, भूमिपुत्र, अन्नदाता,
ग्रामीण, गँवार बेगार, कंजूस,
हाँ कंजूस भी!
शब्दों से हुआ भ्रमित !
आखिर है कौन
किसान!
वह भूमिपुत्र जिसका पेट नही भर पाती
उसकी माँ!
सबकी दुकाने चलती
है
उसके पसीने से…
मेरी,आपकी, हम सब की।
इस बेगार का बकाया
बनता है
आन्दोलन और
राजनैतिक अखाड़ा
सियासतदारों के लिए एक खेल है
किसान!
अपनी दुकान चलाने का
साधन है मात्र!
धरती का ऋण
उतारते-उतारते…
स्वयं लटक जाता है
नीम के पेड़ से
फिर भी नहीं उतरता
है उसका ऋण?
बदल जाते हैं वारिस बही खातों में...
बाढ़,अकाल,अनावृष्टि, दैविकआपदा...
तब खुलता है!
सरकारी सौगातों का
पिटारा...
फिर शुरू होता है
खेल!
लापता आँकड़ो
का...
सिद्धान्त सूत्र
और परिभाषाएं
धरी रह जाती हैं ।
जब पटवारी चौपाल
पर लगाता है
अपनी दुकान!
खुली सौदे बाजी
में होते सब
माला-माल
रह जाता है बस एक
कँगाल !
देख विडम्बना,
मेरे देश के
अन्नदाता की।
गढ़ कुछ ऐसी
युक्ति,
सूत्र और
परिभाषाएं यार!
पलट जाये बाजी काश
|
मेरे देश का किसान
हो जाये खुशहाल।
अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।
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