माँ के राज में,
राज करती हैं बेटियाँ
खिल खिला कर हँसती हैं
तितलियों की भाँति
स्वच्छन्द उड़ती
हैं
खेलती-कूदती हैं
माँ के आँचल मे सुरक्षित
होने के भ्रम में...
जीती हैं बेटियाँ
कभी बड़ी नही होती हैं
बेटियाँ
माँ के राज में!
माँ ने भी बहुत कुछ सहा हैं
जब वो बेटी थी
समाज के आचार-विचार
व तौर-तरीकों के बहाने
फिर क्यो नहीं बना पाती हैं
एक माँ अपनी बेटी को
सबल?
जब बेटियों के साथ कुछ
घटित होता है....
क्यो नही बन पाती है
उसकी ढ़ाल, उसकी
आवाज,
उसका साहस-
क्यों नही निजात दिला
पाती है
इस सोच से कि
बेटी होना एक अभिशाप
हैं!
क्यों करती हैं एक माँ
बेटे की अभिलाषा?
शायद इसलिए
कभी ना कभी माँ ने भी वो सब सहा है...
जब वो बेटी थी
आचार-विचार सड़ी-गली
मान्यताओं के आधार पर
बस बहुत हुआ, अब
उठो!
हे! मातृ-शक्ति...
ढ़ाल नहीं, तलवार बनाओं
बेटियों को
अपनी हो या परायी।
सत्य.....
जानते हुये भी क्यो मौन हैं
हे दुर्गा-वाहिनी!
बेटी के स्वर मे स्वर मिला
विस्तार दो, आवाज़ को...
हे मातृ-शक्ति...
क्या बेटी होना अपराध है!
क्यो नहीं समझ पाता हूँ ।
अमित
मेरी
कविता स्वरचित व मौलिक है।
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