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Saturday, 27 May 2017

मेरे गाँव की मधुर स्मृतियाँ

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खुले मैदान में  
दिन की रामलीला का मंचन,
आसमान में गूँजती रामचरितमानस की चौपाईयां,
खाली लोहे के ढ़ोलो व बाँसो से निर्मित नाव से,  
केवट द्वारा श्रीराम-सीतामैया, लक्ष्मण  को,
पोखर मे नदी पार कराने का रोमांचक दृश्य 
आज भी बरबस याद आ जाता है
अब तो पोखर भी सूख चुकी है !

हमारे घर के तिराहे पर भरत मिलाप का
भाव-विभोर, करुणामय दृश्य, स्मृतिपटल पर
आज भी अंकित है, मानो कल ही बात है ।

दस पैसे के सिंघाड़े
मेरे हाथों व जेबों नहीं समाते थे तब
अब तो रावण जलाने की परंपरा ही शेष है!
शायद !

रात की रामलीला की संवाद अदायगी 
मधुर गीत बीच-बीच में कुछ हास्य दृश्य
बरबस गुदगुदा जाते हैं
पर्दे के पीछे श्रृंगार कक्ष मे
विभिन्न प्रकार के परिधान,
अस्त्र शस्त्र, कलाकारों का श्रृंगार करते ,
जित्तू भैया को टकटकी लगाये देखना ,
तलवार, तीर-कमान, गदा आदि से
खेलना मुझे अत्यंत भाता था, मुझे
रामलीला समिति मे बंधु,
मित्र, कलाकार व पड़ोसी
सब अपने ही स्नेहीजन ...
अत: पर्दे के पीछे व भंडारकक्ष  में
बे-रोकटोक आनाजाना था
दशहरे की छुट्टियो में पूरी मौज-मस्ती...
कभीकभी नाटक प्रतियोगिताएं भी होती थी
श्रवण कुमार, शहीद भगत सिंह,
वीर अभिमन्यु नाटक
सबसे अधिक पसंद ...

रामचरितमानस तो एक पूरी जीवन  शैली  है
श्रवण कुमारशहीद भगत सिंहवीर अभिमन्यु 
बनना हर किसी के
बस की बात नहीं है !
मगर, चाहते हम सब है...
श्रवण कुमार, शहीद भगत सिंह ,
वीर अभिमन्यु, बार-बार जन्म ले,
हर युग मे जन्म ले...
हम सब में कुछ न कुछ अंश है,
महान विभूतियों का 
बस आवश्यकता हैं, साहस की ……
आवश्यक नहीं है कि 
नियति  पूर्व की ही भाँति  हो !

मेरे गाँव की मिट्टी मेरी रगरग में है
अत: इतिश्री भी वैसी ही होगी
जैसा मै चाहूँगा
यही सत्य है ।
आप मानों या न मानों .....

अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।

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