साधु सन्तों का मत हैं,
धन सम्पदा व्यर्थ है,
मिट्टी हैं! पत्थर है!
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धन मिट्टी है कब?
तिजोरी,तहख़ानो मे क़ैद हो जब
जड़त्व अवस्था में हो तब
निष्क्रिय अवस्था में हो जब
अनैतिक धन संग्रह हो तब
प्रवाहहीन मुद्रा राष्ट्र के लिए
अनुपयोगी हो जब
मिट्टी हैं पत्थर है।
मुद्रा तो बस एक माध्यम है।
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विशुध्ध , धवल धन
लक्ष्मी स्वरूप हैं
जो चंचल, चपल,
गतिशील व द्रव्य है।
जिसमें निरंतरता है।
अविरल गंगा की मानिंद,
जहाँ श्री के चरण स्पर्श हो
वहाँ समृद्धि और ऐश्वर्य की
पताका तिरंगे की भाँति
लहराती हैं।
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समाज की रक्त वाहिनी में
प्रवाहित मुद्रा है धन।
मुद्रा परिवर्तन के इस
महायज्ञ में, समुद्र मंथन में,
अनेक विषमताएं है
समस्याएँ है,कठनाइयाँ है
फिर भी समग्र आवाम की
भागेदारी, सहयोग व धैर्य,
वाँछनीय हैं।
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प्रस्तर के द्रव्य में
परिवर्तन की प्रक्रिया
से,
अपार ऊर्जा का उत्सर्जन,
समृद्धि व विकास के
एक नये युग
का मार्ग प्रस्त होगा
ऐसी अभिलाषा हैं
नरेन्द्र की, जन मानस की,
मेरी आपकी, हम सब की।
तथास्तु।
अमित
मेरी कविताए स्वरचित व मौलिक है।
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Friday, 25 November 2016
मुद्रा-प्रवाह
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