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Monday, 13 March 2017

आह्वान




जब मैं फरहाद* की मानिंद कंधे
पर कुदाल लिए एक मुकाम की नीव
खोद रहा था
तब मेरे चिर परिचित जन  सुरक्षित स्थान
पर खड़े हो इंतजार में थे
कब मै अस्तित्वहीन हो जाँऊ

वास्तव मे मैं अस्तित्वहीन हो ही नही सकता
क्योकि मेरा और मकाम का अस्तित्व
एक दूसरे के पर्याय हो गये हैं।

अडिग नीव की अट्टालिका से
आवाज लगाता हूँ मैं
आमंत्रित करता हूँ  दोस्तों ।
मेरे स्नेहीजन आओ।
 नेक काम में हाँथ बटाने के लिए

हर रात की चौकीदारी करते-करते
इस महान मुकाम की
भुल-भुलईया मे खो गया  हूँ !

कसम है।
तुम्हें, मेरे दोस्तो  आओ।
नेक काम में हाँथ बटाने के लिए

कही कुदाल को जंग न लग जाये !
क्योंकि अभी और शेष हैं?
अनेक मुकामों की नींव।
अमित
*शीरीं-फरहाद

मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।

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