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Monday, 29 August 2016

संवाद




तकरार--इश्क मे
न हुयी कोई गुफ्तगु,
हमने वो सुना,
जो उन्होने कहा ही नहीं।
उन्होने वो सुना,जो कहा ही नहीं। 


तकरार--इश्क मे
हमने वो सुना,
जो दिल ने सुनना चाहा।
उन्होने वो सुना,
जो हमने कहना चाहाही नहीं।


इकरारे-इश्क-मे,
उनकी आँखों से,वो ख्वाब देखे,
जो कभी पूरे हुए ही नही।
उनकी आहटो में वो गीत सुना,
जो कभी गायागया ही नहीं।
                               


इकरारे-इश्क-मे,
उन्होने वो कविता सुनी,
जो हमने कभी लिखी ही नहीं।


अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।





संवाद


तकरार--इश्क मे
न हुयी कोई गुफ्तगु,
हमने वो सुना,
जो उन्होने कहा ही नहीं।
उन्होने वो सुना,जो कहा ही नहीं। 


तकरार--इश्क मे
हमने वो सुना,
जो दिल ने सुनना चाहा।
उन्होने वो सुना,
जो हमने कहना चाहाही नहीं।


इकरारे-इश्क-मे,
उनकी आँखों से,वो ख्वाब देखे,
जो कभी पूरे हुए ही नही।
उनकी आहटो में वो गीत सुना,
जो कभी गायागया ही नहीं।
                               


इकरारे-इश्क-मे,
उन्होने वो कविता सुनी,
जो हमने कभी लिखी ही नहीं।


अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।





Tuesday, 23 August 2016

बिन्दु





मैं एक बिन्दु हूँप्रथम बिन्दु
हाँ!
प्रथम बिन्दु
जिसने दिये रेखा को ...
निरन्तर नये आयाम
मगर आज!
स्थिर है अपेक्षित है
अलग-थलग है
जर्जर स्थिति मे है

बिन्दु
झुलस रहा है
जंगल की आग मे
इक्कठे हो जाते है
बुझाने जंगल की आग
सहमजाते है देख
हजारो होलियाँ
पर्यटकों को लगता है रात में
अद्भुतसुन्दर अति सुन्दर!

बर्फ मेगिरता है जब
किसी कंधे पर फंगा,
विघुत रहित उपकरणों से
सुसज्जित चिकित्सालय है
चिकित्सक विहीन!
ले जाते है
एक जिंदा अर्थी को
बर्फ मे घंस कर
पहाड़ी के उस पार..

अतिवृष्टि मे उफनती है
जब नदियाँ....... 
फिर भी प्यासा है बेचारा पहाड़!

भूस्खलन में खिसकता है
जब मेरा घरबह जाते है
मिट्टीलकड़ीपत्थर
फिर भी शेष रह जाता है
कर्ज!

द्रुपद की गायें भी है
बिन चारे के,
होम साम्रगी विहीन
वेद शालायें भी है
इस देव स्थली में...
डाकियाँ...
एक भावपूर्ण अर्थ लिए
जो जोड़ता है मुझे
अपनों की संवेदना से
सूचना मिलती है
सूचना निष्प्रयोजन होने पर!

फिर भी मैं खुश हूँ
यहाँ अपनी रोटी के साथ
मैं एक बिन्दु हूँप्रथम बिन्दु
हाँ!  प्रथम बिन्दु

अमित
मेरी कविता स्वरचित है।


Thursday, 18 August 2016

पहाड़ नाराज़ क्यों हैं आज!


पहाड़ नाराज़ क्यों हैं ?
आज!
गंगा, यमुना, अलकनंदा,
झेलम, ब्रहमपुत्र, कोसी,
न जाने ऐसी कितनी नदियों
की उद्गमस्थली
क्यो नही दे पाती है
दो वक्त की रोटी?

धरती का हलाहल
बादल का फटना
तो कभी सहना पड़ता है
निर्वासन!
हमारी प्यास के लिए
सेब की जलवायु में
आम का पेड़ लगाने की
कोशिशें क्यों है आज!

पहाड़ों की हरियाली पर
रक्त के लाल छीटें क्यों है
घने वृक्षों की शीतल छांव में
सुनाई दे रही है
लू की आहट
ये तो प्रतीक मात्र है!
वर्षो से सुलगते पहाड़ का।

पहरा लगा सकते हो,
तो लगाओ
नदियों की निर्मलता पर
पवन की चंचलता पर
फूलों के खिलने पर
निश्छल अविरल संस्कृति पर
रोकना है तो रोको...
हिमालय से आती सर्द हवाओं को
बारिश से लदे मेघों को

वक्त है अभी भी!
जाग इन्सान
गर, गर्मा गया जो स्वभाव
हिमालय का
बाँध नही पायेगा
फिर कोई बाँध!
पहाड़ नाराज़ क्यों है
आज़।

अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।




प्रवासी मजदूर!

प्रवासी कौन है ? प्रवासी का शाब्दिक अर्थ है जो अपना क्षेत्र छोड़ काम धंधे के लिये, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में  में निवास करता है अर्थात...