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Thursday, 18 August 2016

पहाड़ नाराज़ क्यों हैं आज!


पहाड़ नाराज़ क्यों हैं ?
आज!
गंगा, यमुना, अलकनंदा,
झेलम, ब्रहमपुत्र, कोसी,
न जाने ऐसी कितनी नदियों
की उद्गमस्थली
क्यो नही दे पाती है
दो वक्त की रोटी?

धरती का हलाहल
बादल का फटना
तो कभी सहना पड़ता है
निर्वासन!
हमारी प्यास के लिए
सेब की जलवायु में
आम का पेड़ लगाने की
कोशिशें क्यों है आज!

पहाड़ों की हरियाली पर
रक्त के लाल छीटें क्यों है
घने वृक्षों की शीतल छांव में
सुनाई दे रही है
लू की आहट
ये तो प्रतीक मात्र है!
वर्षो से सुलगते पहाड़ का।

पहरा लगा सकते हो,
तो लगाओ
नदियों की निर्मलता पर
पवन की चंचलता पर
फूलों के खिलने पर
निश्छल अविरल संस्कृति पर
रोकना है तो रोको...
हिमालय से आती सर्द हवाओं को
बारिश से लदे मेघों को

वक्त है अभी भी!
जाग इन्सान
गर, गर्मा गया जो स्वभाव
हिमालय का
बाँध नही पायेगा
फिर कोई बाँध!
पहाड़ नाराज़ क्यों है
आज़।

अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।




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