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Wednesday, 6 July 2016

बग़ैर स्याही,कलम ?




न मालूम था मौसम बदल जायेगा
के वो शख्स  बेजुबान रह जायेगा।

बेशक आप मेरे घर की छत चुरा ले,
घर आसमॉ के सहारे भी रह जायेगा।

छोड दो  सियासत की तिज़ारते जनाब
शहर मे सिर्फ धुऑ ही धुऑ रह जायेगा।

दफन कर देगा वक्त रद्दी के ढेर मे
आपका हर फैसला शेष रह जायेगा।

रास्ते बदल जायेगे आहटे मर जायेगी
सन्नाटे मे सिर्फ परछाई रह जायेगी।

बदल गया ग़र जो मिज़ाज मौसम का
बग़ैर स्याही, कलम शेष रह जायेगी।

कभी तो स्वार्थ की दूकान से बहार देखों
रूह खुदा के नूर से वंचित रह जायेगी।

बेशक आप  मेरे घर  की  छत  चुरा ले

घर आसमॉ के सहारे भी रह जायेगा 
अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।

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