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Sunday, 17 July 2016

"सड़क " (Road)





कितनी बेबस
और असहाय
हूँ मै...
सब कुछ सहना
फिर भी यही पर,
रहना-

बनी इसकी नियति
मानव के कुकृत्यों को 
सहना,

इसने दिये निरंतर
नये आयाम
विकास पथ को-

मानव ने मानव के खून से इसकी छाती को सींच ...
किया इसका प्रतिकार 
है कितनी विवश
आज ये सड़क
रो भी नही सकती है
मानव के कृत्धन होने पर
सिलसिला हुआ शुरू जब
शव यात्राओं का -
क्रंदन कर उठा इसका 
ह्रदय !

और लगाने लगी
अपने अस्थितव पर भी
प्रश्न चिह्न ?

है चारो और सन्नाटा
फिर भी इसकी देह पर
हलचल है
बूटो की।
कितनी बेबस 
और असहाय है
 सड़क।


काश बदले हालात मेरी,
सोच के ये अडिग है
सड़क !
कभी तो सुबह होगी

अमित

मेरी कविता स्वरचित मौलिक है।






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