धरा को घूर्णन गति से चलने की,
भास्कर को उदय होने की,
नीर को नीरद में परिवर्तित होने की,
आतुरता नही व्याकुलता नही।
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पहाड़ को हिमाच्धादित होने की,
सरिता को सागर से मिलने की,
बीज को अंकुरित हो
वृक्ष बनने की,
विहगों को चहकने की,
आतुरता नही व्याकुलता नही।
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ऋतु को परिवर्तित होने की,
समय को व्यतीत होने की,
अनवरत सॉसों की चिर विराम की
पंच-तत्वों को विलिन होने की,
आतुरता नही व्याकुलता नही।
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प्रकृति को किचिंत व्यग्रता नही,
व्याकुलता नही, आतुरता नही,
समग्र प्रक्रिया चरणबद्ध है
एक संतुलन है।
फिर क्यों इतने अधीर हैं,
अमित विकल हैं !
हम!
किरणों का अवनि से स्पर्श भी,
समय बद्ध हैं।
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तत्परता उचित,
अधीरता अनुचित,
न खोने को न पाने को
लेश मात्र भी चिर स्थायी नही है।
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फिर क्यों ?
भयभीत हैं आप और हम
व्यर्थ-आरोप, प्रत्यारोप...
आवश्यक है। आत्मचिंतन,आत्ममंथन
हॉ मंथन से ही प्राप्त होगा
अमृत, मित्र ।
आत्ममंथन से ही प्राप्त होगा अमृत मित्रो।
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अमित
Sept.,2015
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Saturday, 16 July 2016
प्रकृति के नियम (Nature 's Laws)
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अविरल ऊर्जा है- खादी खादी हाथ से कता सूत या एक परिधान मात्र ही नही! अपितु एक विचार-धारा है। एक सिद्धांत है।खादी ...
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