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Thursday, 28 July 2016

अलविदा क्रोध( Goodbye Krodh)





क्रोध विखंडन प्रक्रिया से
उत्सर्जित ऊर्जा है
भिन्नताओं के घर्षण से
उत्पन नकारात्मक ऊर्जा है
विचारों के टकराव से
उत्पन्न नकारात्मक विघुत है
अनुकूलता-प्रतिकुलता से
उत्पन्न आवेग है
मनोस्थिति का क्षणिक
असंतुलन है क्रोध!



क्रोध के अनेक
कारककारणविकारण हैं
परन्तु सृजन स्वम् करता हूँ
सृष्टि के समस्त अवयवों की
पहचान अलग-अलग हैं    
भिन्न-भिन्न हैं

सृष्टि की यही भिन्नता
सुन्दरअदभूतअप्रितम है
सब का किरदार 
अलग-अलग हैं
रंगमंच का आन्नद लेना हैं
लुफ्त उठाना हैं तो ...
भिन्नता को स्वीकार करना ही है


बस प्रयास की आवश्यकता है
पल भर क्रोध को देखना है बस!
दृष्टा की भॉति !
इस प्रयास की पुर्नावृति
से भिन्नताओं को स्वीकारने का
संस्कार उत्पन होगा।



भिन्नताओं की संलयन
प्रक्रिया से उत्सर्जित
ऊर्जा के प्रकाश मे
अलविदा हो जायेगा क्रोध।
अलविदा क्रोधअलविदा क्रोध।
                                                        अमित
                                             मेरी कविताए स्वरचित व मौलिक है।


Tuesday, 26 July 2016

कोण (Angle)

 

जो मैं सोचता हूँ
क्या वो ठीक है।
सच है !
जो हम करते हैं
क्या वो ठीक है
पूर्ण है ?
जीवन के भिन्न-भिन्न
कोण !
हर कोण का एक अलग
दृष्टिकोण !
                                                    
पल-पल मे बदलते हैं।
दिन के रंग
दिन के हर अंश के साथ
बदलता है हिमालय का रंग !
लाल,पीला,नीला,सतरंगी,बर्फीला
न जाने कौन सा रंग...
सच है !
हर कोण का अलग अंश...
अलग दृष्टिकोण !
न जाने कौन सा दृष्टिकोण...
सच है ! 


            अमित
 मेरी कविताए स्वरचित व मौलिक है।






Sunday, 24 July 2016

कौन कहता है? मैं अकेला रहता हूँ !

    
कौन कहता है !
मैं अकेला रहता हूँ
पहाड़ो पर...
अप्रतिम सौन्दर्य 
की छाँव तले रहता हूँ
बर्फीली हवाओ व देवदार के
संग रहता हूँ
ओलावृष्टि मे मोतियों की
सेज पर चलता हूँ
बादल का पहाड़ी से 
आलिंगन देख
आश्चर्य चकित रह जाता हूँ

बारिश मे घुली
षोडशी प्रकृति के श्रृंगार को
टकटकी लगायें,
देखता रहता हूँ।
रश्मिरथी के उदयाचल पर  
आरूढ़ होते ही
चाँदी से चमकते हिमालय को देख ललचा जाता हूँ
सूर्यास्त...
रक्त नीलाभ अम्बर को देख
न जाने कहाँ
खो जाता हूँ
रंग बिरंगी कलियां,फूल वृक्षों 
के साथ खेलता हूँ
हिमालय सी नीली आँखों की
प्रतिक्षा मे रहता हूँ
यहाँ आने से पहते
गेहू की लहलाती फसल मे
अनाज के दाने को
बहुत दूर से देखा है!
जीने के लिए जरूरी है...
कविता और रोटी
जो मैने पायी है
पहाड़ों पर,
तो फिर कैसे कह दूँ
मैं अकेला रहता हूँ
पहाड़ो पर !
अमित
मेरी कविताए स्वरचित व मौलिक है।



Wednesday, 20 July 2016

कौन हूँ मैं ? (Who am I)




एक सपना देखा
विचित्र !
अनेक चेहरे उग आये
मेरे स्थूल शरीर पर
अनेक चेहरे अनेक व्यक्तित्व
असमंजस में...
आखिर कौन हूँ मैं ?

एक नाम एक पद,
पितापुत्रपति
ऐसे न जाने कितने दायित्व !
और रिश्ते !
राजाप्रजासैनिक,
किसाननेतादबंग,
धनवाननिर्धनसूदखोर !
धर्म सम्प्रदाय,
जातिउपजाति, गोत्र !
देवदानवमानव
सॉसे गिनता एक जीव मात्र  !
साधारण मनुष्य !
  आखिर कौन हूँ मैं ?

  या फिर मात्र एक शरीर !
  शरीर भी विसर्जित हो,
  पचं-तत्व में विलीन हो  जाता है।
 लेकिन फिर भी शेष रह जाता है
मेरा स्वम् का अस्तित्व।

मैं हूँ एक ज्योतिमय
बिन्दू !
एक शुन्य !
जिसका ओर ना छोर
न आदि न अन्त
दृष्टा हूँ मैं
चैतन्य अविनाशी अक्षय
ऊर्जा हूँ मैं ।
आन्नदखुशीसुखशान्ति
सब मेरे अन्दर निहित हैं

बस अपने ऊपर ओढ़े अनेक
आवरणों को हटा...
वातायन के पट खोलने की देरी है बस...
सब खुशीयों का खजाना है हमारा है 
मै एक आत्मा हूँ
खुदा का नूर हूँ
जीज़स की लाइट हूँ
गुरू का प्रकाश हूँ
अनुमान नही,एक अनुभव है
अनुभूति हैमै एक आत्मा हूँ
अज़र अमर अविनाशी आत्मा हूँ ।

अमित
मेरी कविता स्वरचित व मौलिक है।

Sunday, 17 July 2016

"सड़क " (Road)





कितनी बेबस
और असहाय
हूँ मै...
सब कुछ सहना
फिर भी यही पर,
रहना-

बनी इसकी नियति
मानव के कुकृत्यों को 
सहना,

इसने दिये निरंतर
नये आयाम
विकास पथ को-

मानव ने मानव के खून से इसकी छाती को सींच ...
किया इसका प्रतिकार 
है कितनी विवश
आज ये सड़क
रो भी नही सकती है
मानव के कृत्धन होने पर
सिलसिला हुआ शुरू जब
शव यात्राओं का -
क्रंदन कर उठा इसका 
ह्रदय !

और लगाने लगी
अपने अस्थितव पर भी
प्रश्न चिह्न ?

है चारो और सन्नाटा
फिर भी इसकी देह पर
हलचल है
बूटो की।
कितनी बेबस 
और असहाय है
 सड़क।


काश बदले हालात मेरी,
सोच के ये अडिग है
सड़क !
कभी तो सुबह होगी

अमित

मेरी कविता स्वरचित मौलिक है।






प्रवासी मजदूर!

प्रवासी कौन है ? प्रवासी का शाब्दिक अर्थ है जो अपना क्षेत्र छोड़ काम धंधे के लिये, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में  में निवास करता है अर्थात...